नदी में बहते थे नीलम ज़मीन धानी थी

नदी में बहते थे नीलम ज़मीन धानी थी
तुम्हारे वायदे की रंगत जो आसमानी थी,

वफ़ा को दे गई धोखा क़तार कसमों की
नई थी डार मगर कुंज तो पुरानी थी,

वहां तो आज भी खिलते है धड़कनों के महाज़
जहाँ निगाह ने पहली शिकस्त मानी थी,

सरों पे तेरी मुहब्बत का सायेबां भी न था
जब आफ़ताब ए क़यामत ने धूप तानी थी,

बदन मिलाप को बेताब और रूहों पर
न मिलने वाले सितारों की हुक्मरानी थी,

मैं वो दीया भी हवाओं के नज़दीक कर बैठा
जो मेरे पास तेरी आख़िरी निशानी थी,

तमाम वुसअ’तें गहराइयों में डूब गई
समन्दरों पे किनारों की मेहरबानी थी..!!

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