आँख से कैसे कहूँ अब भी अंधेरा देखे

आँख से कैसे कहूँ अब भी अंधेरा देखे
मुद्दतें बीत गईं धूप का जल्वा देखे,

दो गिलासों में समुंदर तो नहीं आ सकता
ये नज़र तुझ को अगर देखे तो कितना देखे ?

घूम कर देख लिया सारा ज़माना मैं ने
अब तो बनता है मुझे सारा ज़माना देखे,

ऐसे पढ़ता हूँ क़सीदे तेरी रानाई के
है जो महरूम ए नज़र वो भी सरापा देखे,

जा रहा था वो मुझे छोड़ के ऐसे उस दिन
मैं ने भी चाहा नहीं मुड़ के दुबारा देखे,

उस के जाने पे ख़ुशी भी थी मुझे फ़िक्र भी थी
जैसे माँ मदरसे जाता हुआ बच्चा देखे,

बहुत इतराता है आज़ादी पे अपनी कोई
उस से कहना कभी आ कर मेरा पिंजरा देखे..!!

~इब्राहीम अली ज़ीशान

ज़िंदगी ऐसे चल रही है दोस्त

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