होंठों से लफ़्ज़ ज़ेहन से अफ़्कार छीन ले
मुझ से मेरा वसीला ए इज़हार छीन ले,
नस्लें तबाह होंगी क़बीलों की जंग में
जा बढ़ के अपने बाप से तलवार छीन ले,
ना क़दरियों की अंधी गुफा सामने है फिर
दीमक ही मेरे हाथ से शहकार छीन ले,
अंजाम ख़ुद कुशी न सही फिर भी ऐ नदीम
मुझ से मेरी कहानी का किरदार छीन ले,
दरिया के उस तरफ़ तो अकेला नहीं सलीम
तुझ को जो छीनना हो इसी पार छीन ले..!!
~सलीम अंसारी
























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