आदमी ही आदमी के बीच में आने लगा
फिर वही गुज़रा ज़माना ख़ुद को दुहराने लगा,
एक अदना सा इशारा उसने क्या है कर दिया
बस्तियों पर बस्तियों का ख़ौफ़ मंडराने लगा,
फिर लिखेगा दास्ताँ, जो है हक़ीक़त ही नहीं
फिर सियासी भाव में उसका क़लम जाने लगा,
है बग़ावत ये तो लो, हमने बग़ावत कर ही दी
देखिए, शीशे में छिपकर कोई चिल्लाने लगा..!!
~लक्ष्मण गुप्त
मुल्क की ऐसी तरक़्क़ी, आपकी बला से हो जो हो
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