न महलों की बुलंदी से न लफ़्ज़ों के नगीने से
तमद्दुन में निखार आता है ‘घीसू’ के पसीने से,
अब चर्चा में रोटी है मुहब्बत हाशिए पर है
उतर आई ग़ज़ल इस दौर में कोठी के ज़ीने से,
अदब का आईना उन तंग गलियों से गुज़रता है
जहाँ बचपन सिसकता है लिपटकर माँ के सीने से,
कि बहरे बेकराँ में ताक़यामत का सफ़र ठहरा
जिसे साहिल की हसरत हो उतर जाए सफ़ीने से,
अदीबों की नई पीढ़ी से ये मेरी गुज़ारिश है
सँजोकर रखें धूमिल की विरासत को क़रीने से..!!
~अदम गोंडवी

























1 thought on “न महलों की बुलंदी से न लफ़्ज़ों के नगीने से”