भुखमरी की ज़द में है या दार के साये में है
अहले हिंदुस्तान अब तलवार के साये में है
छा गई है ज़ेहन की पर्तों पे मायूसी की धूप
आदमी गिरती हुई दीवार के साये में है
बेबसी का इक समंदर दूर तक फैला हुआ
और कश्ती काग़ज़ी पतवार के साये में है
हम फ़क़ीरों की न पूछो मुतमइन वो भी नहीं
जो तुम्हारी गेसुए-ख़मदार के साये में है
~अदम गोंडवी
























