इल्म ओ हुनर से क़ौम को रग़बत नहीं रही

इल्म ओ हुनर से क़ौम को रग़बत नहीं रही
इस पर शिकायतें कि फ़ज़ीलत नहीं रही,

बदलेगा क्या निज़ाम कब आएगा इंक़िलाब
जब नौजवाँ लहू में हरारत नहीं रही,

मज़लूम को दिलाए जो हर ज़ुल्म से नजात
ऐसी जहाँ में कोई अदालत नहीं रही,

सज्दे में जा के माँगना बे कार नेमतें
कुछ भी कहो उसे ये इबादत नहीं रही,

फ़तवे लिए हैं शैख़ से पीर ए मुग़ाँ ने ख़ास
पीने में अब ज़रा भी क़बाहत नहीं रही,

मस्जिद का रुख़ किया है जनाब ए फ़रोग़ ने
लगता है अब गुनाह में लज़्ज़त नहीं रही..!!

~फ़रोग़ ज़ैदी

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