दोस्ती का फ़रेब ही खाएँ
आओ काग़ज़ की नाव तैराएँ,
हम अगर रहरवी का अज़्म करें
मंज़िलें खिंच के ख़ुद चली आएँ,
हम को आमादा ए सफ़र न करो
रास्ते पुरख़तर न हो जाएँ,
हमसफ़र रह गए बहुत पीछे
आओ कुछ देर को ठहर जाएँ,
मुतरिबा ऐसा गीत छेड़ कि हम
ज़िंदगी के क़रीब हो जाएँ,
इन बहारों की आबरू रख लो
मुस्कुराओ कि फूल खिल जाएँ
गेसू ए ज़ीस्त के ये उलझाओ
आओ मिल कर शकेब सुलझाएँ..!!
~शकेब जलाली