निकल पड़े हैं सनम रात के शिवाले से
कुछ आज शहर ए ग़रीबाँ में हैं उजाले से,
चलो पलट भी चलें अपने मयकदे की तरफ़
ये आ गए किस अंधेरे में हम उजाले से ?
ख़ुदा करे कि बिखर जाएँ मेरे शानों पर
सँवर रहे हैं ये बादल जो काले काले से,
बुतों की ख़ल्वत ए रंगीं में बज़्म ए अंजुम में
कहाँ कहाँ न गए हम तेरे हवाले से,
जुनूँ की वादी ए आज़ाद में तलब कर लो
निकाल लो हमें शाम ओ सहर के हाले से,
हयात ए अस्र मुझे फेर दे मेरा माज़ी
हसीन था वो अंधेरा तेरे उजाले से,
कोई मनाए तो कैसे मनाए दिल को शमीम
ये बात पूछिए एक रूठ जाने वाले से..!!
~शमीम करहानी