फ़िक्र का सब्ज़ा मिला जज़्बात की काई मिली
ज़ेहन के तालाब पर क्या नक़्श आराई मिली,
मुतमइन होता कहाँ मेरा दिल ए जल्वत पसंद
दरमियान ए शहर भी जंगल सी तन्हाई मिली,
देखने में दूर से वो किस क़दर सादा लगा
पास से देखा तो उस में कितनी गहराई मिली,
हर दरीचा मेरे इस्तिक़बाल को वा हो गया
अजनबी गलियों में भी मुझ को शनासाई मिली,
जब भी हब्स ए शहर से निकले तो हर एक राह पर
मेहरबाँ अहबाब की मानिंद पुरवाई मिली,
इस से बढ़ कर और क्या होता सफ़र का इख़्तिताम
डूबते सूरज से हर मंज़र को रानाई मिली,
राब्तों की वुसअतें हरजाई पन समझी गईं
हम को ऐ बेताब शोहरत से भी रुस्वाई मिली..!!
~सलीम बेताब