तेरी सूरत निगाहों में फिरती रहे
इश्क़ तेरा सताए तो मैं क्या करूँ ?
कोई इतना तो आ कर बता दे मुझे
जब तेरी याद आए तो मैं क्या करूँ ?
मैंने ख़ाक ए नशेमन को बोसे दिए
और ये कह के भी दिल को समझा लिया,
आशियाना बनाना मेरा काम था
कोई बिजली गिराए तो मैं क्या करूँ ?
मैंने माँगी थी ये मस्जिदों में दुआ
मैं जिसे चाहता हूँ वो मुझको मिले,
जो मेरा फ़र्ज़ था मैंने पूरा किया
अब ख़ुदा ही न चाहे तो मैं क्या करूँ ?
शौक़ पीने का मुझको ज्यादा न था
तर्क ए तौबा का कोई इरादा न था,
मैं शराबी नहीं मुझको तोहमत न दो
वो नज़र से पिलाए तो मैं क्या करूँ ?
हुस्न और इश्क़ दोनों में तफ़रीक़ है
पर इन्हीं दोनों पे मेरा ईमान है,
गर ख़ुदा रूठ जाए तो सज्दे करूँ
और सनम रूठ जाए तो मैं क्या करूँ ?
चश्म ए साक़ी से पीने को मैं जो गया
पारसाई का मेरी भरम खुल गया,
बन रहा है जहाँ में तमाशा मेरा
होश मुझको न आए तो मैं क्या करूँ ??
~ताबिश कानपुरी