ये जो नंग थे ये जो नाम थे मुझे खा गए
ये ख़याल ए पुख़्ता जो ख़ाम थे मुझे खा गए,
कभी अपनी आँख से ज़िंदगी पे नज़र न की
वही ज़ाविए कि जो आम थे मुझे खा गए,
मैं अमीक़ था कि पला हुआ था सुकूत में
ये जो लोग महव ए कलाम थे मुझे खा गए,
वो जो मुझ में एक इकाई थी वो न जुड़ सकी
यही रेज़ा रेज़ा जो काम थे मुझे खा गए,
ये अयाँ जो आब ए हयात है इसे क्या करूँ ?
कि निहाँ जो ज़हर के जाम थे मुझे खा गए,
वो नगीं जो ख़ातिम ए ज़िंदगी से फिसल गया
तो वही जो मेरे ग़ुलाम थे मुझे खा गए,
मैं वो शोला था जिसे दाम से तो ज़रर न था
प जो वसवसे तह ए दाम थे मुझे खा गए,
जो खुली खुली थीं अदावतें मुझे रास थीं
ये जो ज़हर ए ख़ंद सलाम थे मुझे खा गए..!!
~ख़ुर्शीद रिज़वी