ये और बात दूर रहे मंज़िलों से हम
बच कर चले हमेशा मगर क़ाफ़िलों से हम,
होने को फिर शिकार नई उलझनों से हम
मिलते हैं रोज़ अपने कई दोस्तों से हम,
बरसों फ़रेब खाते रहे दूसरों से हम
अपनी समझ में आए बड़ी मुश्किलों से हम,
मंज़िल की है तलब तो हमें साथ ले चलो
वाक़िफ़ हैं ख़ूब राह की बारीकियों से हम,
जिन के परों से सुब्ह की ख़ुशबू के रंग हैं
बचपन उधार लाए हैं उन तितलियों से हम,
गुज़रे हमारे घर की किसी रहगुज़र से वो
पर्दे हटाए देखें उन्हें खिड़कियों से हम,
अब तो हमारे बीच कभी दूरियाँ भी हों
तंग आ गए हैं रोज़ की नज़दीकियों से हम,
जब भी कहा कि याद हमारी कहाँ उन्हें
पकड़े गए हैं ठीक तभी हिचकियों से हम,
~आलोक श्रीवास्तव