तू क्या जाने रूह भी ज़ख़्मी होती है

तू क्या जाने रूह भी ज़ख़्मी होती है
जब लफ़्ज़ों से दहशत गर्दी होती है,

आ जाता है बिन दस्तक के वो दिल में
फिर कब जाए उस की मर्ज़ी होती है,

मैं तो देखता रहता हूँ बस उस का खेल
रूह ओ दिल में गुत्थम गुत्थी होती है,

उसने नफ़रत घोल दी दिल के दरिया में
हर मंज़र में ख़ून की सुर्ख़ी होती है,

मुझको मार के ज़िंदा रहना है उस को
उस को कब मुझ से हमदर्दी होती है,

और तो हम से क्या होता है बस इतना
दर्द में डूबों की ग़मख़्वारी होती है,

इस छोटे से दिल में दुनिया बस जाए
वो दुनिया जो ग़म की मारी होती है,

उस से मिलूँ तो एक क़यामत बरपा हो
ख़ुद की ख़ुद से पर्दादारी होती है,

ग़म ही रहता है हम जैसों के दिल में
दिल बस्ती ख़ुशियों से ख़ाली होती है,

जिन लोगों को मेरे ग़म मिल जाते हैं
उन की अदा जीने की निराली होती है..!!

~इरशाद अज़ीज़

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