शिक़स्त ए ख़्वाब के अब मुझमे हौसले भी नहीं..

आँखों में नींदों के सिलसिले भी नहीं
शिक़स्त ए ख़्वाब के अब मुझमे हौसले भी नहीं,

नहीं नहीं ! ये ख़बर दुश्मनों ने दी होगी
वो आये ! आ के चले भी गए ! मिले भी नहीं !

ये कौन लोग अँधेरे की बात करते है
अभी तो चाँद तेरी याद के ढले भी नहीं,

अभी से मेरे रफूगर के हाथ थकने लगे
अभी तो चाक मेरे ज़ख्म के सिले भी नहीं,

खफ़ा अगरचे हमेशा हुए मगर अब
वो बरहमी है कि हमसे उन्हें गिले भी नहीं,

मुताअ ए क़ल्ब ओ ज़िगर है, हमें कहीं से मिले
मगर वो ज़ख्म जो उस दस्त ए शबनमी से मिले,

न शाम है, न घनी रात है, न पिछला पहर
अज़ीब रंग तेरी चश्म ए सुरमगी से मिले,

मैं इस विसाल के लम्हे का नाम क्या रखूँ ?
तेरे लिबास की शिकने तेरी जबीं से मिले,

शायद ये मेरे अहबाब की नवाज़िश है
मगर सिले तो मुझे अपने नुक्ताचीन से मिले,

तमाम उम्र की ना मोतबर रिफाक़त से
कही भला हो कि पल भर मिले, यकीं से मिले..!!

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