शख्सियत ए लख्त ए ज़िगर कहला न सका
ज़न्नत के धनी क़दमों को मैं सहला न सका,
दूध पिलाया जिसने छाती से निचोड़ कर
मैं निकम्मा एक गिलास पानी पिला न सका,
हूँ बुढ़ापे का सहारा अहसास दिला न सका
सीने पे सुलाने वाली को मखमल पे सुला न सका,
बहू के डर से भूखी ही सो गई एक बार माँग कर
मैं सुकूं के दो निवाले तक उसे खिला न सका,
उन बूढ़ी आँखों से मैं नज़रे कभी मिला न सका
दर्द वो सहती रही मैं जुबां तक हिला न सका,
जो हर रोज़ ही ममता के नए रंग पहनाती रही
उसे ईद पर भी एक जोड़े कपड़े सिला न सका,
बीमार बिस्तर से उसे मैं शिफ़ा दिला न सका
खर्च के डर से बड़े अस्पताल मैं ले जा न सका,
बेटा कह कर दम तोड़ने के बाद से सोच रहा हूँ
दवाई इतनी भी महँगी न थी कि मैं ला न सका..!!