परिन्दे अब भी पर तोले हुए हैं
हवा में सनसनी घोले हुए हैं,
तुम्हीं कमज़ोर पड़ते जा रहे हो
तुम्हारे ख़्वाब तो शोले हुए हैं,
ग़ज़ब है सच को सच कहते नहीं वो
क़ुरान ओ उपनिषद् खोले हुए हैं,
मज़ारों से दुआएँ माँगते हो
अक़ीदे किस क़दर पोले हुए हैं,
हमारे हाथ तो काटे गए थे
हमारे पाँव भी छोले हुए हैं,
कभी किश्ती, कभी बतख़, कभी जल
सियासत के कई चोले हुए हैं,
हमारा क़द सिमट कर मिट गया है
हमारे पैरहन झोले हुए हैं,
चढ़ाता फिर रहा हूँ जो चढ़ावे
तुम्हारे नाम पर बोले हुए हैं..!!
~दुष्यंत कुमार