मेरी अना का असासा ज़रूर ख़ाक हुआ

मेरी अना का असासा ज़रूर ख़ाक हुआ
मगर ख़ुशी है कि तेरे हुज़ूर ख़ाक हुआ,

मुझे बदन के बिखरने का ग़म नहीं लेकिन
मलाल ये है दिल ए ना सुबूर ख़ाक हुआ,

मैं अपनी ख़ाक से रौशन हुआ जो सूरत ए मुश्क
तमाम मौसम ए गुल का ग़ुरूर ख़ाक हुआ,

बिछड़ के तुझ से ये कम तो नहीं ज़ियाँ मेरा
हर एक मंज़र ए नज़दीक ओ दूर ख़ाक हुआ,

ये कैसा क़हत मेरे ज़ेहन ओ दिल पे आया है
सलीम मेरी ग़ज़ल का शुऊ’र ख़ाक हुआ..!!

~सलीम अंसारी

बरहना शाख़ों पे कब फ़ाख़ताएँ आती हैं

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