ख़्वाहिशों का इम्तिहाँ होने तो दो
फ़ासले कुछ दरमियाँ होने तो दो,
मय कशी भी बा वज़ू होगी यहाँ
शैख़ को पीर ए मुग़ाँ होने तो दो,
मंज़िल ए मक़्सूद से आई सदा
दिल को मीर ए कारवाँ होने तो दो,
ख़ामुशी आवाज़ बन जाएगी यूँ
बे ज़बानी को ज़बाँ होने तो दो,
क्या नहीं मुमकिन है कुछ सय्याद से
उस को अपना बाग़बाँ होने तो दो..!!
~फ़रोग़ ज़ैदी