कभी यूँ भी आ मेरी आँख में…

कभी यूँ भी आ मेरी आँख में कि मेरी नज़र को ख़बर न हो
मुझे एक रात नवाज़ दे मगर उस रात की कभी सहर न हो,

वो बड़ा रहीम ओ करीम है मुझे ये सिफ़त भी अता करे
गर तुझे भूलने की दुआ करूँ तो मेरी दुआओं में असर न हो,

मेंरे बाज़ुओं में थकी थकी अभी महव ए ख़्वाब है चाँदनी
न उठे सितारों की पालकी अभी आहटों का गुज़र न हो,

ये ग़ज़ल कि जैसे हिरन की आँख में पिछली रात की चाँदनी
न बुझे ख़राबे की रौशनी कभी बे चराग़ ये घर न हो,

कभी दिन की धूप में झूम के कभी शब के फूल को चूम के
यूँ ही साथ साथ चलें सदा कभी ख़त्म अपना सफ़र न हो..!!

~बशीर बद्र

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