कभी झिड़की से कभी प्यार से समझाते रहे
हम गई रात पे दिल को लिए बहलाते रहे,
अपने अख़्लाक़ की शोहरत ने अजब दिन दिखलाए
वो भी आते रहे अहबाब भी साथ आते रहे,
हम ने तो लुट के मोहब्बत की रिवायत रख ली
उन से तो पोछिए वो किस लिए पछताते रहे ?
उस के तो नाम से वाबस्ता है कलियों का गुदाज़
आँसुओ तुम से तो पत्थर भी पिघल जाते रहे,
यूँ तो ना अहलों के पीने पे जिगर कटता था
हम भी पैमाने को पैमाने से टकराते रहे,
उन की ये वज़् ए क़दीमाना भी अल्लाह अल्लाह!
पहले एहसान किया बाद को शरमाते रहे,
यूँ किसे मिलती है मामूल से फ़ुर्सत लेकिन
हम तो इस लुत्फ़ ए ग़म ए यार से भी जाते रहे..!!
~मुस्तफ़ा ज़ैदी