जिसके सम्मोहन में पागल, धरती है, आकाश भी है
एक पहेली सी से दुनिया, गल्प भी है, इतिहास भी है,
चिंतन के सोपान पे चढ़कर चाँद सितारे छू आए
लेकिन मन की गहराई में माटी की बू बास भी है,
मानव मन के द्वंद्व को आख़िर किस साँचे में ढालोगे
महारास की पृष्ठभूमि में ‘ओशो’ का संन्यास भी है,
अमृत की बूँदे बरसी थीं तब हमने मुँह फेर लिया
आज ख़ुशी से ज़हर पी रहे और इसका एहसास भी है,
इंद्रधनुष के पुल से गुज़रकर उस बस्ती तक आए हैं
जहाँ भूख की धूप सलोनी चंचल है बिंदास भी है,
कंक्रीट के इस जंगल में फूल खिले पर ग्रंथ नहीं
स्मृतियों की घाटी में यूँ कहने को मधुमास भी है..!!
~अदम गोंडवी
























