जिस ने बख़्शी है फ़ुग़ाँ उस को सुना भी न सकूँ
कैसा नग़्मा है जिसे साज़ पे गा भी न सकूँ,
दिल में एक इस के सिवा दूसरी तस्वीर नहीं
उस के आईने को उस को ही दिखा भी न सकूँ,
तुम अना छोड़ के आओ तो भुला दूँ हर रंज
हर्फ़ क़िस्मत का नहीं हूँ कि मिटा भी न सकूँ,
सोच ले अब भी तेरे हाथ है दोनों का सकूँ
वर्ना मुमकिन है कभी लौट के आ भी न सकूँ,
हाए पाबंदी ए बेचारगी ए अह्द ए वफ़ा
ज़ख़्म उस के ही उसे गिन के बता भी न सकूँ,
वो तो क़तरों को भी तरसाता है दरिया हो कर
आग जो दिल में लगी है वो बुझा भी न सकूँ,
बोझ ऐसा है गुनाहों का कि जिस को साहिल
अपने कमज़ोर से काँधों पे उठा भी न सकूँ..!!
~राम चंद्र वर्मा साहिल