हम पर करेगा रहमतें परवर दिगार भी
हालात अपने होंगे कभी साज़गार भी,
तू ने भुला दी चाहतें क़ौल ओ क़रार भी
हम मुंतज़िर रहे तेरे सरहद के पार भी,
हालाँकि कर चुका था वो तर्क ए तअल्लुक़ात
पर काश मुड़ के देखता बस एक बार भी,
डेरा जमा लिया है ख़िज़ाँ ने कुछ इस तरह
अब ख़ुश न कर सकेगी ये फ़स्ल ए बहार भी,
अपनी निगाह में तो रहे सुर्ख़ रू सदा
इंसाँ में होना चाहिए इतना वक़ार भी,
ये अपने रहनुमाओं के वादों का है असर
बे एतिबार हो गया अब एतिबार भी,
ये कैसा दौर आ गया मीना कि अब यहाँ
सिक्कों के मोल बिकता है अपनों का प्यार भी..!!
~मीना ख़ान