गुज़रे जो अपने यारों की सोहबत में चार दिन
ऐसा लगा बसर हुए जन्नत में चार दिन,
उम्र ए ख़िज़र की उस को तमन्ना कभी न हो
इंसान जी सके जो मोहब्बत में चार दिन,
जब तक जिए निभाएँगे हम उन से दोस्ती
अपने रहे जो दोस्त मुसीबत में चार दिन,
ऐ जान ए आरज़ू वो क़यामत से कम न थे
काटे तेरे बग़ैर जो ग़ुर्बत में चार दिन,
फिर उम्र भर कभी न सुकूँ पा सका ये दिल
कटने थे जो भी कट गए राहत में चार दिन,
जो फ़क़्र में सुरूर है शाही में वो कहाँ
हम भी रहे हैं नशा ए दौलत में चार दिन,
उस आग ने जला के ये दिल राख कर दिया
उठते थे ‘जोश’ शोले जो वहशत में चार दिन..!!
~ए जी जोश