ग़ुरूब ए शाम ही से ख़ुद को यूँ महसूस करता हूँ
कि जैसे एक दीया हूँ और हवा की ज़द पे रखा हूँ,
चमकती धूप तुम अपने ही दामन में न भर लेना
मैं सारी रात पेड़ों की तरह बारिश में भीगा हूँ,
ये किस आवाज़ का बोसा मेरे होंटों पे काँपा है
मैं पिछली सब सदाओं की हलावत भूल बैठा हूँ,
बिछड़ के तुम से मैं ने भी कोई साथी नहीं ढूँढा
हुजूम ए रहगुज़र में दूर तक देखो अकेला हूँ,
कोई टूटा हुआ रिश्ता न दामन से उलझ जाए
तुम्हारे साथ पहली बार बाज़ारों में निकला हूँ,
मैं गिर के टूट जाऊँ या कोई मेहराब मिल जाए
न जाने कब से हाथों में खिलौना बन के जीता हूँ..!!
~ज़ुबैर रिज़वी
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