ग़ैरत ए इश्क़ सलामत थी अना ज़िंदा थी
वो भी दिन थे कि रह ओ रस्म ए वफ़ा ज़िंदा थी,
क़ैस को दोश न दो रखियो न फ़रहाद को नाम
इन्ही लोगों से मोहब्बत की अदा ज़िंदा थी,
शहर ए बीमार के हर कूचा ओ बाम ओ दर पर
हम भी मरते थे कि जब ख़ल्क़ ए ख़ुदा ज़िंदा थी,
बुझ गईं शमएँ तो दम तोड़ गए झोंके भी
जिस तरह ज़हर ए रक़ाबत से हवा ज़िंदा थी,
याद ए अय्याम कि सहरा ए मोहब्बत में ‘फ़राज़’
जरस ए क़ाफ़िला ए दिल की सदा ज़िंदा थी..!!
~अहमद फ़राज़