फ़िराक़ ओ वस्ल से हट कर कोई रिश्ता…

फ़िराक़ ओ वस्ल से हट कर कोई रिश्ता हमारा हो
बग़ैर उस के भी शायद ज़िंदगी हमको गवारा हो,

निकल आए जो हम घर से तो सौ रस्ते निकल आए
अबस था सोचना घर में कोई ग़ैबी इशारा हो,

न इस ढब की भी ज़ुल्मत हो कि सब मिल कर दुआ माँगें
कोई जुगनू ही आ निकले न गर कोई सितारा हो,

ज़ियाँ की ज़द पे दुनिया में कई लोग और भी होंगे
तो फिर ऐ नामुरादी तू मेरे ग़म का सहारा हो,

तक़ाबुल कसरत ओ क़िल्लत का कुछ मअनी नहीं रखता
अंधेरा चीर कर निकले अगरचे एक शरारा हो,

पुराने ग़म तेरे तो जुज़्व ए जाँ हम ने बना डाले
बिसात ए दिल की ख़्वाहिश है नए ग़म का उतारा हो,

फ़सील ए शहर पे रौशन अगर हों हुस्न की शमएँ
तो एक एक लफ़्ज़ ‘शाहिद’ रौशनी का इस्तिआरा हो..!!

~सिद्दीक़ शाहिद

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