दिल की बस्ती पे किसी दर्द का साया…

दिल की बस्ती पे किसी दर्द का साया भी नहीं
ऐसा वीरानी का मौसम कभी आया भी नहीं,

हम किसी और ही आलम में रहा करते हैं
अहल ए दुनिया ने जहाँ आके सताया भी नहीं,

हम पे इस आलम ए ताज़ा में गुज़रती क्या है
तुम ने पूछा भी नहीं हम ने बताया भी नहीं,

कब से हूँ ग़र्क़ किसी झील की गहराई में
राज़ ए अय्याम मगर अक़्ल ने पाया भी नहीं,

बेज़मीनी का ये दुख और ज़मीं भी अपनी
बेबसी ऐसी कि नुक्ता ये उठाया भी नहीं,

बेजिहत उठते हुए ठोकरें खाते ये क़दम
रहबर मेरा मुझे राह पे लाया भी नहीं,

उस ने हमदर्दी के पैमाँ तो बहुत बाँधे थे
आ पड़ी है तो मेरा हाथ बटाया भी नहीं,

दिल की दीवारों से लिपटी है किसी शाम की याद
जाने वाला तो कभी लौट के आया भी नहीं,

सर्द मेहरी कि जिगर छलनी किए देती है
उसने यूँ देखने में हाथ छुड़ाया भी नहीं,

उससे उम्मीद ए वफ़ा बाँध रखी है ‘शाहिद’
जिसने ये बार मोहब्बत का उठाया भी नहीं..!!

~सिद्दीक़ शाहिद

Leave a Reply

error: Content is protected !!
%d bloggers like this: