दिल की बर्बादी में शामिल थी रज़ा आँखों की
इस की पादाश में काम आई ज़िया आँखों की,
आँख माहौल से जब तर्क ए तअ’ल्लुक़ कर ले
ग़ौर कीजे तो वो होती है अना आँखों की,
ज़ेर ए लब मौज ए तबस्सुम न अरूसाना लिबास
हुस्न ए मा’सूम की पहचान हया आँखों की,
हाल ए दिल लफ़्ज़ों का मुहताज है ये किस ने कहा
कोई समझे तो ये आँसू हैं सदा आँखों की,
हम को ले डूबेगा ये ज़ाहिर ओ बातिन का तज़ाद
रूह का कर्ब जुदा राह जुदा आँखों की,
गौहर ए अश्क को अर्ज़ां नहीं करते ये लोग
क़द्र पहचानते हैं अहल ए वफ़ा आँखों की,
आँखों वालों ने उड़ाया है अँधेरों का मज़ाक़
रौशनी छीन न ले उन से ख़ुदा आँखों की,
इस को क्या कहते हैं इक़बाल मैं किस से पूछूँ
हुस्न ख़ुद दाद तलब और ख़ता आँखों की..!!
~अज्ञात
उन लबों की याद आई गुल के मुस्कुराने से
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