न इब्तिदा की ख़बर है न इंतिहा मालूम…
न इब्तिदा की ख़बर है न इंतिहा मालूम रहा ये वहम कि हम हैं सो वो भी क्या
Love Poetry
न इब्तिदा की ख़बर है न इंतिहा मालूम रहा ये वहम कि हम हैं सो वो भी क्या
आँखे बन जाती है सावन की घटा शाम के बाद लौट जाता है अगर कोई खफ़ा शाम के
कोई हसीन मंज़र आँखों से जब ओझल हो जाएगा मुझको पागल कहने वाला ख़ुद ही पागल हो जाएगा,
तभी तो मैं मुहब्बत का कही हवालाती नहीं होता जहाँ अपने सिवा कोई शख्स मुलाक़ाती नहीं होता, गिरफ्तार
मैं रातें जाग कर अक्सर वो यादें झाँक कर अक्सर निशाँ जो छोड़ देती है मेरी ही ज़ात
मेरे दोस्त, ऐ मेरे प्यारे अभी बात है अधूरी अभी चाँदनी है बाक़ी अभी रात है अधूरी, वही
चाँद यूँ कुछ देर को आते हो चले जाते हो मेरी नज़रों से छुप कर बादलो में शरमाते
इस तसल्ली से बरसते है आँसू तेरे सामने कि तेरा हाथ मेरे रुखसार को तो आएगा, तेरे चाहने
एक शख्स की खातिर ज़बर कर बैठा हूँ मैं ज़िन्दगी को इधर उधर कर बैठा हूँ, उस लम्हे
ख़ुदा की कौन सी है राह बेहतर जानता है मज़ा है नेकियों में क्या कलंदर जानता है, बहुत