किस सिम्त चल पड़ी है खुदाई ऐ मेरे ख़ुदा
किस सिम्त चल पड़ी है खुदाई ऐ मेरे ख़ुदा नफ़रत ही दे रही है दिखाई ऐ मेरे ख़ुदा,
Islamic Poetry
किस सिम्त चल पड़ी है खुदाई ऐ मेरे ख़ुदा नफ़रत ही दे रही है दिखाई ऐ मेरे ख़ुदा,
बहुत कुछ मेहनतों से एक ज़रा इज़्ज़त कमाई है अंधेरे झोंपड़े में रौशनी जुगनू से आई है, तसद्दुक़
बेकार जब दुआ है दवा क्या करेगी आज ऐसे में ज़िंदगी भी वफ़ा क्या करेगी आज ? ये
दो चार क्या हैं सारे ज़माने के बावजूद हम मिट नहीं सकेंगे मिटाने के बावजूद, ये राज़ काश
यही हाल रहा साक़ी तेरे मयखानों का तो ढेर लग जाएगा टूटे हुए पैमानों का, क़हत दुनियाँ में
अब तरसते हो कि बच्चे मेरे बोले उर्दू उन्हें अफरंग बनाने की ज़रूरत क्या थी ? आज रोते
तारीफ़ उस ख़ुदा की जिसने जहाँ बनाया कैसी हसीं ज़मीं बनाई क्या आसमां बनाया, मिट्टी से बेल बूटे
क़ुदरत का करिश्मा भी क्या बेमिसाल है चेहरे सफ़ेद काले पर खून सबका लाल है, हिन्दू है यहाँ
ये क़ुदरत भी अब तबाही की हुई शौक़ीन लगती है ऐ दौर ए ज़दीद साज़िश तेरी बहुत संगीन
बात अब करते है क़तरे भी समंदर की तरह लोग ईमान बदलते है कलेंडर की तरह, कोई मंज़िल