बरहना शाख़ों पे कब फ़ाख़ताएँ आती हैं
मैं वो शजर हूँ कि जिस में बलाएँ आती हैं,
ये कौन मेरे लहू में दिए जलाता है
बदन से छन के ये कैसी शुआएँ आती हैं,
मुझे सनद की ज़रूरत नहीं है नाक़िद से
मेरी ग़ज़ल पे हसीनों की राएँ आती हैं,
ख़ुदा से जिन का तअ’ल्लुक़ नहीं बचा कोई
सफ़र में याद उन्हें भी दुआएँ आती हैं,
उन्हें ख़बर ही नहीं कब का बुझ चुका हूँ मैं
मेरी तलाश में अब तक हवाएँ आती हैं,
मैं चीख़ता हूँ किसी दश्त ए बे अमाँ में सलीम
फिर उस के बा’द मुसलसल सदाएँ आती हैं..!!
~सलीम अंसारी























