अर्ज़ ए गम कभी उसके रूबरू भी हो जाए
शायरी तो होती है, कभी गुफ़्तगू भी हो जाए,
ज़ख्म ए हिज़्र भरने से याद तो नहीं जाती
कुछ निशाँ तो रहते है, दिल रफू भी हो जाए,
रिंद है भरे बैठे और है मयकदा ख़ाली
क्या बने जो ऐसे में एक “हू” भी हो जाए,
पहली नामुरादी का दुःख कहीं बिसरता है
बाद में अगर कोई सुर्खुरू भी हो जाए,
दीन ओ दिल तो खो बैठे अब फ़राज़ क्या गम है
कु ए यार में गारत आबरू भी हो जाए..!!
~अहमद फ़राज़