अपने घर के दर ओ दीवार को ऊँचा न करो
इतना गहरा मेरी आवाज़ से पर्दा न करो,
जो न एक बार भी चलते हुए मुड़ के देखें
ऐसी मग़रूर तमन्नाओं का पीछा न करो,
हो अगर साथ किसी शोख़ की ख़ुशबू ए बदन
राह चलते हुए मह पारों को देखा न करो,
कल न हो ये कि मकीनों को तरस जाए ये दिल
दिल के आसेब का हर एक से चर्चा न करो,
इश्क़ आसार ज़ुलेखाओं की इस बस्ती में
साहिबो पाकी ए दामाँ पे भरोसा न करो..!!
~ज़ुबैर रिज़वी
ग़ुरूब ए शाम ही से ख़ुद को यूँ महसूस करता हूँ
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