क़र्ज़ जाँ का उतारने के लिए
मैं जीया ख़ुद को मारने के लिए,
मुझे जलना पड़ा दीये की तरह
शब की ज़ुल्फे सँवारने के लिए,
देख ! ख़ुद को मिटा दिया मैंने
नक्श तेरे उभारने के लिए,
मैंने दहलीज पर धरी आँखे
तुझको दिल में उतारने के लिए,
उसने तोहफ़ा दिया उदासी का
वक़्त ख़ुशी ख़ुशी गुज़ारने के लिए,
फिर भी इस मुहब्बत के खेल में
मैं हूँ तैयार उससे हारने के लिए..!!
➤ आप इन्हें भी पढ़ सकते हैं

क्यूँ ज़मीं है आज प्यासी इस तरह ?

क्या शर्त ए मुहब्बत है, क्या शर्त…

धरती पर जब ख़ूँ बहता है बादल…

मैंने तो बहुत देखे अपने भी पराये भी…

ज़िन्दगी ने लिया है ऐसा इम्तिहाँ मेरा

यूँ ही हर बात पे हँसने का बहाना आये…

हाल ये है कि ख़्वाहिश ए पुर्सिश ए हाल भी नहीं

हर घड़ी चश्म ए ख़रीदार में रहने के लिए

अंज़ाम नहीं मिलता, उन्वान नहीं मिलता

वो लोग ही हर दौर में महबूब रहे हैं



















