रखा नहीं था तू ने मेरा दिल सँभाल कर
अब कुछ न कर सकेगा लिहाज़ा मलाल कर,
रक़्साँ थी शब को धूप तुम्हारे ख़याल की
फ़ुर्सत का चाँद बैठ गया दिल सँभाल कर,
बाहर निकल के देख अँधेरों से एक बार
रखा है रौशनी ने कलेजा निकाल कर,
कहते हैं दिल जिसे कहीं मौजूद ही नहीं
देखा है मैं ने बारहा सीना खँगाल कर,
बाब ए क़फ़स खुला था रिहा तब न हो सके
अब क्या करें ज़मीन से रस्ता निकाल कर ?
आई थी इतनी याद तेरे जिस्म की महक
हम चूमने लगे तेरे कपड़े निकाल कर..!!
~इब्राहीम अली ज़ीशान
तू तो तन्हा सर ए बाज़ार निकल जाता है
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