किसी रांझे से इतना दूर कहाँ कोई हीर रहती है

किसी रांझे से इतना दूर कहाँ कोई हीर रहती है
मैं अब लाहौर रहता हूँ, वो अब कश्मीर रहती है,

सियासी ज़ुल्म के चलते जो हम बिछड़े सैंतालिस में
उस मंज़र की मेरे दिल में अब भी तस्वीर रहती है,

सरहद से लौट आये सब लिखे जो राब्ते को ख़त
दराज़ों में मोहब्बत की मिटी तहरीर रहती है,

मिलेंगे हम कभी इस आस को दफ़ना दिया कब का
किसी गोशे में क़ैद हो कर मेरी तक़दीर रहती है,

ईद की रस्म अदा सारी बिन उसके हो ही जाती है
हमेशा की तरह अक्सर बस फीकी खीर रहती है,

कभी तो आयेगा वो दिन जिस पल साथ हम होंगे
दिलासे को जो देता दिल यही तक़रीर रहती है,

मेहज़ माशूक कह कर तुम उसे करना नहीं रुसवा
किसी के इश्क़ की समझो वहाँ जागीर रहती है,

ख़बर है वो भी लिखती है उसे भी शायरी का शौक़
अशज रहता जौन के देश वो मुल्क ए मीर रहती है..!!

~अज्ञात

ज़माने में कहीं दिल को लगाना भी ज़रूरी था

1 thought on “किसी रांझे से इतना दूर कहाँ कोई हीर रहती है”

Leave a Reply