एक शख़्स बा ज़मीर मेरा यार मुसहफ़ी

एक शख़्स बा ज़मीर मेरा यार मुसहफ़ी
मेरी तरह वफ़ा का परस्तार मुसहफ़ी,

रहता था कज कुलाह अमीरों के दरमियाँ
यकसर लिए हुए मेरा किरदार मुसहफ़ी,

देते हैं दाद ग़ैर को कब अहल ए लखनऊ
कब दाद का था उन से तलबगार मुसहफ़ी ?

ना क़द्री ए जहाँ से कई बार आ के तंग
एक उम्र शेर से रहा बेज़ार मुसहफ़ी,

दरबार में था बार कहाँ उस ग़रीब को
बरसों मिसाल ए मीर फिरा ख़्वार मुसहफ़ी,

मैं ने भी उस गली में गुज़ारी है रो के उम्र
मिलता है उस गली में किसे प्यार मुसहफ़ी..??

~हबीब जालिब

ग़ज़लें तो कही हैं कुछ हम ने उन से न कहा अहवाल तो क्या

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