हर आह ग़म ए दिल की ग़म्माज़ नहीं होती
और वाह मसर्रत का आग़ाज़ नहीं होती,
जो रोक नहीं पाती अश्कों की रवानी को
वो आँख ग़म ए दिल की हमराज़ नहीं होती,
हर अश्क ए शहंशाही एक ताज नहीं बनता
हर मलका ज़माने में मुमताज़ नहीं होती,
मिलती है ख़मोशी से ज़ालिम को सज़ा यारो
अल्लाह की लाठी में आवाज़ नहीं होती,
एक ठोस हक़ीक़त है अल्फ़ाज़ के पैकर में
ये शाइरी शाइर का एजाज़ नहीं होती,
यूँ उम्र की क़ैंची ने पर मेरे कतर डाले
अब लाख करूँ कोशिश परवाज़ नहीं होती,
दौलत की बदौलत जो बँधती है असद सर पर
दस्तार ए फ़ज़ीलत वो एज़ाज़ नहीं होती..!!
~असद रज़ा