उस गली के लोगों को मुँह लगा के पछताए
एक दर्द की ख़ातिर कितने दर्द अपनाए,
थक के सो गया सूरज शाम के धुँदलकों में
आज भी कई ग़ुंचे फूल बन के मुरझाए,
हम हँसे तो आँखों में तैरने लगी शबनम
तुम हँसे तो गुलशन ने तुम पे फूल बरसाए,
उस गली में क्या खोया उस गली में क्या पाया
तिश्ना काम पहुँचे थे तिश्ना काम लौट आए,
फिर रही हैं आँखों में तेरे शहर की गलियाँ
डूबता हुआ सूरज फैलते हुए साए,
जालिब एक आवारा उलझनों का गहवारा
कौन उस को समझाए कौन उस को सुलझाए..??
~हबीब जालिब
ये उजड़े बाग़ वीराने पुराने
➤ आप इन्हें भी पढ़ सकते हैं






























1 thought on “उस गली के लोगों को मुँह लगा के पछताए”