हम तो हर ग़म को जहाँ के ग़म ए जानाँ समझे

हम तो हर ग़म को जहाँ के ग़म ए जानाँ समझे
जब बढ़ा नश्शा तो हम बादा ए इरफ़ाँ समझे,

जो बहारों को सहर कारी ए दौराँ समझे
ज़िंदगानी को वही ख़्वाब ए परेशाँ समझे,

फ़िक्र ए ईजाद ए सितम में वो झुकाए थे जबीं
हम उन्हें अपनी जफ़ाओं पे पशेमाँ समझे,

खा गया एक जहाँ मेरे तबस्सुम का फ़रेब
जो मेरी तरह परेशाँ थे परेशाँ समझे,

हम ने शिकवा न किया शौक़ किसी से ग़म का
अपनी तक़दीर को अपने से गुरेज़ाँ समझे..!!

~विशनू कुमार शौक

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