हालात पर निगाह रुतों पर नज़र न थी

हालात पर निगाह रुतों पर नज़र न थी
जब तक रहे चमन में चमन की ख़बर न थी,

ख़ुद अपने घर को आग दिखाई थी आप ने
इस में तो कोई साज़िश ए बर्क़ ओ शरर न थी,

रूदाद ए तीरा बख़्ती ए अहबाब क्या कहें
उन के लिए सहर भी तुलू ए सहर न थी,

फ़स्ल ए बहार में तर ओ ताज़ा नहीं हवा
शायद शजर को ख़्वाहिश ए बर्ग ओ समर न थी,

टूटी हुई उमीद शिकस्ता थे हौसले
दिल की तबाहियों पे मगर आँख तर न थी,

दश्त ए तलब में इतने अंधेरे थे कारगर
रख़्शंदा एक किरन भी सर ए रहगुज़र न थी,

फिर क्यूँ सुना दिया था अदालत ने फ़ैसला
शाहिद मेरी गवाही अगर मोतबर न थी..!!

~हफ़ीज़ शाहिद

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