ज़हर को मय दिल ए सद पारा को मीना न कहो
दौर ऐसा है कि पीने को भी पीना न कहो,
न बताओ कि तबस्सुम भी है एक ज़ख़्म का नाम
चाक है किस लिए इंसान का सीना न कहो,
कम निगाहों का है फ़रमान कि ऐ दीदावरो
किस लिए तुम को मिला दीदा ए बीना न कहो,
रख दो इल्ज़ाम किसी मौजा ए मासूम के सर
ना ख़ुदाओं ने डुबोया है सफ़ीना न कहो,
हर नफ़स मौत की बख़्शी हुई मोहलत जैसे
कोई जीना है ये जीना इसे जीना न कहो,
ये तो फ़नकार की मेहनत का सिला है यारो
मेरे माथे के पसीने को पसीना न कहो,
संगरेज़ों को कहीं ठेस न लग जाए शमीम
मस्लहत है कि नगीने को नगीना न कहो..!!
~शमीम करहानी
















