दीवाना हूँ मैं बिखरे मोती चुनता हूँ
लम्हा लम्हा जोड़ के सदियाँ बुनता हूँ,
तन्हा कमरे सूना आँगन रात उदास
फिर भी घर में सरगोशी सी सुनता हूँ,
मुझको दीमक चाट रही है सोचों की
मैं अपने अंदर ही अंदर घुनता हूँ,
हँसते फूल कहाँ हैं मेरी क़िस्मत में
मैं तो बस मुरझाई कलियाँ चुनता हूँ,
कहने को ख़ामोश है मेरी ज़ात मगर
सुनने को तो सब की बातें सुनता हूँ,
आज़र एक मौहूम सी है उम्मीद अभी
जिस के सहारे ख़्वाब सुनहरे बुनता हूँ..!!
~मुश्ताक़ आज़र फ़रीदी