जुबां कड़वी, हलक सूखा, हैं साँसे मुनज़मिद मेरी
ज़हर ने किया क्या आख़िर ज़रा सी चासनी दे कर,
बने मेरी भला क्यूँ कर गुलों से फूलो कलियों से
डसा है मुझको बहारो ने फ़रेब ए ज़िन्दगी दे कर,
इनायत ये कैसी की है मुझ पे इन कुंद साँपों ने
लो देखो बन गया पत्थर मैं अपनी सादगी दे कर..!!