ज़ौक़ ए गुनाह ओ अज़्म ए पशेमाँ लिए हुए

ज़ौक़ ए गुनाह ओ अज़्म ए पशेमाँ लिए हुए
क्या क्या हुनर हैं हज़रत ए इंसाँ लिए हुए,

कुफ़्र ओ ख़िरद को रास न आएगी ज़िंदगी
जब तक जुनूँ है मिशअल ए इन्साँ लिए हुए,

हूँ उन के सामने मगर उन पर नज़र नहीं
सई ए तलब है अज़्म ए गुरेज़ाँ लिए हुए,

दिल को सुकून ए पस्ती ए साहिल से क्या ग़रज़
हर अज़्म है बुलंदी ए तूफ़ाँ लिए हुए,

गुलशन के दिल में आज भी महफ़ूज़ हैं वो फूल
मुरझा गए जो दाग़ ए बहारां लिए हुए,

आ ही गए वो अर्ज़ ए नदामत को ऐ शकील
लालीँ लबों पे ख़ंदा ए गिर्यां लिए हुए..!!

~शकील बदायूनी

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