ज़मीन दी है तो थोड़ा सा आसमान भी दे
मेरे ख़ुदा मेरे होने का कुछ गुमान भी दे,
बना के बुत मुझे बीनाई का अज़ाब न दे
ये ही अज़ाब है क़िस्मत तो फिर ज़बान भी दे,
ये काएनात का फैलाव तो बहुत कम है
जहाँ समा सके तन्हाई वो मकान भी दे,
मैं अपने आप से कब तक किया करूँ बातें
मेरी ज़बाँ को कभी कोई तर्जुमान भी दे,
फ़लक को चांद सितारे नवाज़ने वाले
मुझे चराग़ जलाने को साएबान भी दे..!!
~निदा फ़ाज़ली
























