उलझे काँटों से कि खेले गुल ए तर से पहले
फ़िक्र ये है कि सबा आए किधर से पहले,
जाम ओ पैमाना ओ साक़ी का गुमाँ था लेकिन
दीदा ए तर ही था याँ दीदा ए तर से पहले,
अब्र ए नैसाँ की न बरकत है न फ़ैज़ान ए बहार
क़तरे गुम हो गए ता’मीर ए गुहर से पहले,
जम गया दिल में लहू सूख गए आँखों में अश्क
थम गया दर्द ए जिगर रंग ए सहर से पहले,
क़ाफ़िले आए तो थे नारों के परचम ले कर
सर निगूँ हो गई हर आह असर से पहले,
ख़ून ए सर बह गया मौत आ गई दीवानों को
बारिश ए संग से तूफ़ान ए शरर से पहले,
सुर्ख़ी ए ख़ून ए तमन्ना की महक आती है
दिल कोई टूटा है शायद गुल ए तर से पहले,
मक़तल ए शौक़ के आदाब निराले हैं बहुत
दिल भी क़ातिल को दिया करते हैं सर से पहले..!!
~अली सरदार जाफ़री