तन्हाई से है सोहबत दिन रात जुदाई में
क्या ख़ूब गुज़रती है औक़ात जुदाई में,
रुख़्सत हो चला था तब दामन न तिरा थामा
अफ़्सोस कि मलते हैं अब हाथ जुदाई में,
क्या ज़िक्र है आँसू का ज़ालिम मिरी आँखों से
ख़ूँ-नाब ही टपके है यक ज़ात जुदाई में,
जब वस्ल था उन रोज़ों यक दिल ही पे आफ़त थी
अब जान का है सौदा हैहात जुदाई में,
ये नाला-ओ-ज़ारी ये ख़स्तगी ओ ख़्वारी
जीधर को चलूँ ‘जोशिश’ हैं सात जुदाई में,
~जोशिश अज़ीमाबादी